25 जून को भाजपा मनाएगी काला दिवस
 25 जून 1975 आपातकाल - विशेष )
25 जून को भाजपा मनाएगी काला दिवस
1980 में पुनः सत्ता में आने के बाद इंदिरा जी ने कराए आपातकालीन दस्तावेज नष्ट


आज के दिन 25 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल लगाया था आपातकाल लगाते ही नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए थे, प्रेस की आजादी समाप्त कर दी गई थी और विपक्ष के सवा लाख से अधिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया था उन पर जेलों और थानों में बर्बर अत्याचार किये गये थे। भाजपा इसलिए आज 25 जून के दिन को ‘‘काले दिवस’’ के रूप में याद करती है।
सन् 1971 में हुए लोकसभा के आम चुनाव में कांग्रेस को 253 सीटों का भारी बहुमत प्राप्त हुआ था। श्रीमती गांधी ने उत्तरप्रदेश के रायबरेली में लोकसभा का चुनाव लड़ा था और अपने प्रतिद्वंदी समाजवादी नेता श्री राजनारायण को एक लाख से अधिक मतों से पराजित किया था किन्तु राजनारायण ने इलाहबाद हाईकोर्ट में इस चुनाव के खिलाफ एक याचिका दायर की थी। जिसमें श्रीमती गांधी द्वारा चुनाव में धांधली कर जीतने का आरोप लगाया गया था।
4 साल बाद 12 जून 1975 को इलाहबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इस याचिका पर अपना फैसला सुनाया था। जिसमें उन्होंने श्रीमती गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरणों का दोषी पाया था। जस्टिस सिन्हा ने आरोप सिद्ध होने पर श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द कर दिया था साथ ही उन्हें 6 साल के लिए किसी भी निर्वाचित पद संभालने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। जस्टिस सिन्हा ने अपने इस आदेश की तामीली के लिए श्रीमती गांधी की मांग पर उन्हें 20 दिनों का समय दिया था। किन्तु श्रीमती गांधी ने इन 20 दिनों का उपयोग षडयंत्रपूर्वक कुर्सी बचाने के लिए किया।
उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को मानने से इंकार कर दिया था और सत्ता में बने रहने के लिए लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार कर 25 जून की अर्द्धरात्री में देश को आपातकाल की भट्टी में झौक दिया था। उसी रात प्रेस पर सेंशरशिप लागू कर देशभर के अखबारों के कार्यालयों पर छापे मारकर छापे जा चुके अखबारों को जप्त कर लिया था तथा सरकार की बिना स्वीकृति के कोई अखबार छप न सके इस हेतु अखबारों के छापाखानों की बिजली आपूर्ति बंद कर दी गई थी। बाद में जिन अखबारों ने आपातकाल का समर्थन किया और सरकार के सामने नतमस्तक हो गए वे ही अखबार छप सके तथा जिन अखबारों के मालिकों और संपादकों ने आपातकाल लगाने का विरोध किया उन्हें जेलों में ठूस दिया गया।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिये गए तथा तमाम विरोधी नेताओं को जिनमें श्री जयप्रकाश नारायण, श्री अटल बिहारी वाजपेयी, श्री लालकृष्ण आडवाणी व श्री मोरारजी देसाई प्रमुख थे उनके हजारों कार्यकर्ताओं के साथ गिरफ्तार कर मीसा कानून के तहत जेलों में डाल दिया गया।
मीसा (मेंटनेंस ऑफ इंटरनल सिक्यूरिटी एक्ट) ऐसा कानून था जिसके तहत जेल में बंद किया गया व्यक्ति न्याय पाने के लिए न्यायालय में अपील नही कर सकता था। इस कानून के तहत सरकार के पास किसी भी व्यक्ति को जो अपराधी हो या न हो उसे अनिश्चितकाल के लिए जेल में बंद कर देने के अधिकार थे।
 सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने ससंद में विपक्ष की अनुपस्थिति में संविधान में मनमाने अनेक संशोधन पास करा लिए थे। उन्होंने चुनाव कानून में संशोधन कर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को रद्द कराने के लिए यह संशोधन करा दिया था कि चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोप के कारण किसी कि सदस्यता समाप्त कर दी जाए तो उसका मामला राष्ट्रपति के पास भेजा जाए तथा इस मामले में राष्ट्रपति को मंत्री मण्डल की सलाह मानना आवश्यक होगा। इस तरह श्रीमती गांधी ने इलाहबाद उच्च न्यायालय के उक्त फैसले को जीत लिया था। 18 मार्च 1976 को लोकसभा की अवधि समाप्त होने वाली थी श्रीमती गांधी चुनाव नही कराना चाहती थी अतः लोकसभा द्वारा चुनाव कानून में संशोधन कर चुनाव की अवधि एक साल के लिए बढ़ा दी गई। इस प्रकार श्रीमती गांधी तानाशाह बनने के लिए कदम दर कदम आगे बढ़ती जा रही थी। ऐसे समय में जब देश एक बार फिर अधिनायकवाद की ओर बढ़ रहा था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जमाते इस्लामी, समाजवादी, आनंदमार्गी, भारतीय जनसंघ व संगठन कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सर्वोदयी नेता व स्वतंत्रता संग्राम सैनानी जयप्रकाश नारायण के मार्गदर्शन में आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ी। देश भर में अधिनायकवाद के खिलाफ सत्याग्रह कर जेल भरो आंदोलन शुरू किये गये।
तानाशाह बनने की ओर श्रीमती गांधी के बढ़ते कदमों को देखकर जयप्रकाश नारायण ने 21 जुलाई 1975 को जेल से श्रीमती गांधी को एक बड़ा ही मार्मिक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने लिखा कि ‘‘ राष्ट्र के निर्माताओं ने जिसमें तुम्हारे उदात्त पिताश्री भी शामिल थे, जो नींवे डाली थी उन्हें मेहरबानी करके नष्ट न करो। तुमने जो रास्ता अपनाया है उस पर झगड़े और मुसीबत के अलावा और कुछ नही हैं। तुम्हें उत्तराधिकार में एक महान परम्परा उदात्त-आदर्श और एक काम करता हुआ जनतंत्र मिला है। अपने पीछे इन सबके टूटे हुए खण्डहर न छोड़ जाना। इन सब चीजों को फिर से जुटाकर बनाने में बहुत समय लग जाएगा। इसे फिर से जुटाकर से खड़ा कर दिया जाएगा, इसमें तो मुझे तनिक भी संदेह नही है। जिस जनता ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद से टक्कर ली है और उसे नीचा दिखाया है, वह निरंकुशता के कलंक और अपमान को हमेशा के लिए स्वीकार नही कर सकती। मनुष्य की आत्मा कभी परास्त नही हो सकती, उसे चाहे जितनी बुरी तरह क्यों न कुचला जाए। अपनी निजी डिक्टेटरशिप कायम करने, तुमने उसे बहुत गहरा दफन कर दिया है लेकिन वह अपनी कब्र से फिर उठेगी। रूस तक में वह धीरे-धीरे उभर रही है।
तुमने सामाजिक जनतंत्र की बात की है। इन शब्दों से मन में कितनी सुंदर कल्पना उभरती है। लेकिन तुमने खुद पूर्वी और मध्यवर्ती यूरोप में देखा है वास्तविकता कितनी कुरूप है। नंगी तानाशाही और अंत में चलकर रूस का प्रभुत्व। मेहरबानी करके, दया करके भारत को उस भयानक दुर्भाग्य की ओर मत ढकेलो।’’
श्रीमती गांधी पर इस पत्र का कोई असर नही हुआ वे चाहती थी कि अगर आपातकाल की वैद्यता पर जनता की मोहर लग जाए तो आपातकाल को स्थायी रूप दे दिया जाए इसलिए उन्होंने जनता की राय जानने के लिए राज्य के मुख्यमंत्रियों, गुप्तचर विभाग और नीति शोध संस्थान नई दिल्ली से एक सर्वे कराया। इन सभी की राय थी कि अगर वर्तमान स्थिति में चुनाव कराए जाते हैं तो जनमत श्रीमती गांधी के पक्ष में आएगा अतः श्रीमती गांधी ने चुनाव कराने का जोखिम उठा लिया और उन्होंने लोकसभा के चुनाव कराने की घोषणा कर दी, किन्तु 22 मार्च 1977 को जो लोकसभा चुनाव के परिणाम सामने आए उससे उनके द्वारा कराए गए सर्वे नाकाम साबित हुए। चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी, उनके पुत्र संजय गांधी सहित सभी कांग्रेस के दिग्गज बुरी तरह चुनाव हार गए। 24 मार्च को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार ने शपथ ली। उन्होंने इंदिरा जी द्वारा जो संविधान में संशोधन कराए गए थे, उन्हें रद्द किया व लोकसभा तथा विधानसभा का कार्यकाल पुनः 6 वर्ष के स्थान पर 5 वर्ष का कर दिया।
मुरारजी देसाई की सरकार अपने अंर्तविरोध के कारण ढाई साल में ही गिर गई और सन् 1980 में श्रीमती इंदिरा गांधी पुनः प्रधानमंत्री बनी।
श्रीमती गांधी ने आपात लगाने की अपनी गलती छिपाने व आपातकाल में हुई ज्यादतियां व असंवैधानिक कार्यो पर पर्दा डालने के लिए प्रधानमंत्री बनने के बाद षडयंत्रपूर्वक तमाम आपातकालीन दस्तावेजों को नष्ट करा दिया।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपने एक आलेख में लिखा है कि गृह मंत्रालय का दावा है कि उसके पास तत्कालीन राष्ट्रपति फकरूद्दीन अली अहमद द्वारा आपातकाल घोषित करने से संबंद्ध उद्घोषणा नही है, न ही उसके पास मिथ्या आरोपों के आधार पर हजारों लोगों को बंदी बनाने के निर्णय से संबंद्ध कोई रिकार्ड हैं। उसके पास महत्वपूर्ण पदों पर दागी व्यक्तियों की नियुक्ति और विरासत संबंधी विधि सम्मत व्यवस्थाओं के उल्लंघन का कोई रिकार्ड भी नहीं है। गृह मंत्रालय ने गुम हुए दस्तावेजों की जिम्मेदारी भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार पर डाल दी। इसके विरोध में राष्ट्रीय अभिलेखागार का कहना है कि उसे इस तरह के कोई दस्तावेज संभालने के लिए दिए ही नहीं गए। श्री कुलदीप नैयर ने लिखा है कि यह आश्चर्यजनक है कि आपातकाल के दौरान हुई ज्यादतियों की जांच करने वाले शाह आयोग ने अपनी कार्यवाही के अंतिम दिन कहा था कि वह सारा रिकार्ड राष्ट्रीय अभिलेखागार में जमा करा रहा है। शाह आयोग ने 100 बैठकें की थी, 48 हजार कागजात की पड़ताल की थी और 2 अंतरिम रिपोर्ट पेश की थी। श्री नैयर ने लिखा है कि साक्ष्य नष्ट करने की प्रक्रिया सन् 1980 में श्रीमती गांधी की सत्ता में वापसी के साथ ही शुरू हो गई थी।
(उपरोक्त आलेख का लेखक भी आपातकाल के दौरान डीआईआर और मीसा के तहत भोपाल व होशंगाबाद जेल में 12 माह से अधिक समय के लिए निरूद्ध रहा था। 20 जनवरी 1976 को भोपाल में सत्याग्रह किया था तथा भोपाल जेल में डीआईआर के तहत 2 फरवरी 1976 तक निरूद्ध रहा। इसके पश्चात बीएससी द्वितीय वर्ष की परीक्षा हेतु संघ के अधिकारियों द्वारा 9 मार्च 1976 को जमानत पर छुड़ाया गया। परीक्षा-कापी में रसायन शास्त्र के पेपर में ‘‘आपातकाल-प्रजातंत्र की हत्या’’ विषय पर लम्बा निबंध लिखने के कारण दूसरे ही दिन 14 मार्च 1976 को मीसा के तहत गिरफ्तार कर होशंगाबाद जिला कारागार में बंद कर दिया गया।)
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