विश्व विजेता स्वामी विवेकानंद की जयंती धूमधाम से मनाई।
बैतूल/सारनी। कैलाश पाटिल
प्रतिवर्षानुसार इस वर्ष भी स्वामी विवेकानंद विचार मंच सारनी ने स्वामी विवेकानंद जी जयंती श्रीराम मंदिर प्रांगण में सुबह 9 बजे बड़े ही धूमधाम से मनाई। स्वामी विवेकानंद विचार मंच के सदस्य रंजीत डोंगरे, श्याम मदान, अमित गुप्ता, विश्वजीत विश्वास ने बताया कि राम मंदिर प्रांगण स्थिति स्वामी विवेकानंद प्रतिमा पर वरिष्ठ अतिथियों, युवाओ ने दीप प्रज्वलित करके माल्यार्पण व पुष्प अर्पित करके कार्यक्रम की विधिवत शुरुवात कर बड़े ही धूमधाम से श्री राम मंदिर प्रांगण सारनी में स्वामी विवेकानंद जी जयंती मनाई गई । कार्यक़म के मुख्य वक्ता राजेन्द्र प्रसाद तिवारी आचार्य ने लोगो को सम्बोधित करते हुए स्वामी विवेकानंद जी के जीवन चित्रण को सारगर्भित रूप से व्यक्त करते हुए कहा कि यदि कोई यह पूछे कि वह कौन युवा संन्यासी था, जिसने विश्व पटल पर भारत और हिन्दू धर्म की कीर्ति पताका फहराई, तो सबके मुख से निःसंदेह स्वामी विवेकानन्द का नाम ही निकलेगा ।विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्र था। उनका जन्म कोलकाता में 12 जनवरी, 1863 को हुआ था। बचपन से ही वे बहुत शरारती, साहसी और प्रतिभावान थे। पूजा-पाठ और ध्यान में उनका मन बहुत लगता था। नरेन्द्र के पिता उन्हें अपनी तरह प्रसिद्ध वकील बनाना चाहते थे पर वे धर्म सम्बन्धी अपनी जिज्ञासाओं के लिए इधर-उधर भटकते रहते थे। किसी ने उन्हें दक्षिणेश्वर के पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंस के बारे में बताया कि उन पर माँ भगवती की विशेष कृपा है। यह सुनकर नरेन्द्र उनके पास जा पहुँचे। वहाँ पहुँचते ही उन्हें लगा, जैसे उनके मन-मस्तिष्क में विद्युत का संचार हो गया है। यही स्थिति रामकृष्ण जी की भी थी; उनके आग्रह पर नरेन्द्र ने कुछ भजन सुनाये। भजन सुनते ही परमहंस जी को समाधि लग गयी। वे रोते हुए बोले, नरेन्द्र मैं कितने दिनों से तुम्हारी प्रतीक्षा में था। तुमने आने में इतनी देर क्यों लगायी ? धीरे-धीरे दोनों में प्रेम बढ़ता गया। वहाँ नरेन्द्र की सभी जिज्ञासाओं का समाधान हुआ।
उन्होंने परमहंस जी से पूछा - क्या आपने भगवान को देखा है ? उन्होंने उत्तर दिया - हाँ, केवल देखा ही नहीं उससे बात भी की है। तुम चाहो तो तुम्हारी बात भी करा सकता हूँ। यह कहकर उन्होंने नरेन्द्र को स्पर्श किया। इतने से ही नरेन्द्र को भाव समाधि लग गयी। अपनी सुध-बुध खोकर वे मानो दूसरे लोक में पहुँच गये। अब नरेन्द्र का अधिकांश समय दक्षिणेश्वर में बीतने लगा। आगे चलकर उन्होंने संन्यास ले लिया और उनका नाम विवेकानन्द हो गया। जब रामकृष्ण जी को लगा कि उनका अन्त समय पास आ गया है, तो उन्होंने विवेकानन्द को स्पर्श कर अपनी सारी आध्यात्मिक शक्तियाँ उन्हें दे दीं। अब विवेकानन्द ने देश-भ्रमण प्रारम्भ किया और वेदान्त के बारे में लोगों को जाग्रत करने लगे।
इन्हीं दिनों उन्हें शिकांगो में होने जा रहे विश्व धर्म सम्मेलन का पता लगा। उनके कुछ शुभचिन्तकों ने धन का प्रबन्ध कर दिया। स्वामी जी भी ईसाइयों के गढ़ में ही उन्हें ललकारना चाहते थे। अतः वे शिकागो जा पहुँचे। शिकागो का सम्मेलन वस्तुतः दुनिया में ईसाइयत की जयकार गुँजाने का षड्यन्त्र मात्र था। इसलिए विवेकानन्द को बोलने के लिए सबसे अन्त में कुछ मिनट का ही समय मिला पर उन्होंने अपने पहले ही वाक्य ‘अमरीकावासियो भाइयो और बहिनो’ कहकर सबका दिल जीत लिया। तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूँज उठा। यह 11 सितम्बर, 1893 का दिन था। उनका भाषण सुनकर लोगों के भ्रम दूर हुए। कार्यक्रम में मंच के द्वारा बजुर्गो को गर्म कम्बल का वितरण भी किया और उनका आशीर्वाद युवाओ ने लिया। इस अवसर पर प्रकाश घोरसे, दसरथ डांगे, सीकेवाल, वर्मा, निराकार सागर, कुमार पीयूष, माधव विश्वकर्मा , विनोद झरबड़े, विजेश सोनी, राकेश सोनी, कुण्डलिकराव बारस्कर, राकेश नामदेव, चंद्रेशेखर अहिरवार, मनीष धोटे, मुकेश सोनी, डब्बू सोनी, कामदेव सोनी, सोनू सोनी, आशीष डोंगरे, हुकुम सिंह राजपूत, वासु कामड़े, सुमित यादव, साकरे, तुपेश पाटिल, मनीष खातरकर, प्रमोद विजयवार शुक्ला जी एव भारी संख्या में युवागण वरिष्ठजन उपस्थित थे ।